कर्बला का इतिहास! मुहर्रम क्यु मनाया जाता है? वाक्या ए कर्बला।—

 कर्बला का इतिहास! मुहर्रम  क्यु मनाया जाता है? वाक्या ए कर्बला।—  

    कर्बला का इतिहास


इराक में स्थित कर्बला एक ऐतिहासिक शहर है,जहा की मिट्टी अनपे आप मे ही बयान ​करती  कर्बला का वह मंजर,यह जमीन बलिदान, सत्य, और न्याय की लड़ाई का प्रतीक बन चुकी है। कर्बला की घटना इस्लामी इतिहास की सबसे भावनात्मक और महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक बताई जाती है। यह लड़ाई क्यू हुई आइए जानते है पूरा मुकम्मल वाक्या ।

इस्लाम के पैगंबर और सबसे आखरी नबी हज़रत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम.)की वफ़ात निधन के बाद, मुसलमानों में संचालन को लेकर मतभेद हो गए, तो वही कुछ लोग खलीफा (नेता) को चुनाव के माध्यम से चुनने के पक्ष में थे, जबकि कुछ मानते थे कि यह पद पैगंबर के परिवार, खासकर उनके दामाद और हज़रत अली (रदी अल्लाहु तआला अन्हु)** के पास होना चाहिए।


समय बीतता गया और हज़रत अली के पुत्र हज़रत इमाम हुसैन (रदी अल्लाहु तआला अन्हु.) तक यह मामला पहुंचा। उस समय यज़ीद बिन मुआविया जो कि पहले खलीफा मुआविया का बेटा था, उसने सत्ता पर कब्जा कर लिया। यज़ीद एक क्रूर, भोगी और अत्याचारी शासक माना जाता था। उसने मुसलमानों से अपनी बैअत (आज्ञा-पत्र) लेने के लिए दबाव डाला।

#इमाम हुसैन का विरोध:

हज़रत इमाम हुसैन रदी अल्लाहु तआला अन्हु, जो कि नबी-ए-पाक हज़रत मोहम्मद मुस्तफा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के नवासे यानी नाती थे, ने यज़ीद की बैअत करने से साफ इनकार कर दिया। उनका मानना था कि इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध किसी ज़ालिम शासक का समर्थन करना एक बड़ा अन्याय होगा।


इस इनकार से क्रोधित होकर, यज़ीद ने इमाम हुसैन और उनके परिवार पर दबाव बनाना शुरू किया। इमाम हुसैन ने मदीना छोड़ दिया और मक्का पहुँचे। उसने अपने साथियों के साथ मिलकर कुफे के लोगों से खत लिखवाना शुरू किया,और इमाम हुसैन तक भेजा ताकी वह कूफा आए,इस दौरान इमाम हुसैन ने अपने भाई मुस्लिम बिन अकील को कूफा भेजा ।जब मुस्लिम ​बिन अकील वहॉं पहुचें तब उनका इस्तकबाल बड़े ही अच्छे तरीके से किया गया ।यह सब देख उनहोने भाई हुसैन को खत भेजा और कहा कर भाई आप आ सकते है । खत मिलते ही हुसैन और उनके 72 साथियो के साथ वहाँ से कूफ़ा की ओर रुख किया, क्योंकि वहाँ के लोग उन्हें समर्थन का वादा कर रहे थे। वही इधर मुस्लिम बिन अकील जब नमाज़ के लिए मस्जिद़ गए तब उनहे समझ आगया की यह यज़ीद की चाल है, किसी तरह उनहोने अपना पैगाम भेजा की हूसैन कूफा मत आना तब तक यज़ीद की सैनिको ने उनहे शहीद कर दिया। इधर हुसैन अलैहिस्सलाम का काफिला कूफा पहुॅंच चुका था। 

 

  कर्बला की ओर यात्रा और घेराबंदी: 

जब इमाम हुसैन अपने परिवार और करीब 72 साथियों के साथ कर्बला पहुँचे, तो यज़ीद की विशाल सेना ने उन्हें घेर लिया। उन्हें नदी फरात से पानी लेने तक की इज़ाजत नहीं दी गई। कई दिनों तक बिना पानी के रहकर इमाम हुसैन और उनका परिवार भूखा-प्यासा रहा, फिर भी उन्होंने यज़ीद की बैअत नहीं की।रात को खेमें के बाहर हजरत इमाम हुसैन ने अपने साथियो को बुलाया और कहा यज़ीद को मेरी मौत चाहिए आप सब चले जाए ,खेमे की बत्तियॉं बुजा दि गई फिर भी कोई न गया 72 साथी अभी भी वही खड़े रहे।  

आशूरा: शहादत का दिन

10 मुहर्रम 61 हिजरी (680 ई.) को वह भयानक दिन आया जिसे आज "आशूरा" कहते हैं। उस दिन यज़ीद की सेना ने हमला कर दिया। एक-एक करके इमाम हुसैन के सारे साथी,को श्​हीद कर दिया। उनके भाई हज़रत अब्बास अलमदार जब बेटी सकीना और बच्चो के लिए पानी लेने नेहरे फरात पहुचें तो उनके दोनो बाजुए काट दिए गए और उनहे शहीद कर दिया,



 उनके 10साल के बेटे अली अकबर, यहाँ तक कि 6 महीने के बेटे अली असग़र को भी तीर से गले में वार कर शहीद कर दिया गया। आखिर में अशर का वक्त होगया इमाम हुसैन** अकेले हो कर भी 50000 सैनिको से लड़ते रहे को भी शीमर ने सर कलम कर बेरहमी से शहीद कर दिया । उनके सिर को धड़ से अलग कर यज़ीद के दरबार में भेजा गया। उनकी बहन **हज़रत ज़ैनब (र.अ.) और बच्चों को बंदी बना लिया गया।

कर्बला की विरासत:

कर्बला कोई सिर्फ युद्ध नहीं था — यह एक *बुराई पर सच्चाई की जीत थी। इमाम हुसैन ने अपने प्राण देकर यह संदेश दिया कि


"ज़ुल्म के सामने सिर झुकाना गुनाह है, और सच्चाई के लिए जान देना इबादत है।"



आज भी मुहर्रम के महीने,खासकर से *10 मुहर्रम (आशूरा) को, दुनिया भर के मुसलमान रोजे रखते है लंगर व नियाज़ करवाते है। (शिया समुदाय) इमाम हुसैन की याद में मातम करते हैं, जुलूस निकालते हैं और उनकी कुर्बानी को याद करते हैं।

*कर्बला की घटना केवल एक ऐतिहासिक युद्ध नहीं, बल्कि अन्याय के खिलाफ अमर संघर्ष है।*यह हमें सिखाती है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हों, सत्य और इंसाफ के लिए डटे रहना ही सच्ची बहादुरी है।


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